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का बतलाने के लिये भी नहीं हैं। हाँ ! उन दोनों के मुख कमलों का निरीक्षण कर प्रत्येक विचारवान् सज्जन बतला सकता है कि तप उनके चेहरे पर झलकता है, कार्य की सिद्धि उनकी आंखे के सामने नाच रही है और संयम का कबच संसार के यावत् विकारों से उनकी रक्षा कर रहा है ।

ऐसे जितेंद्रिय, दृढ़मना और तपस्वी महात्माओ के लिये पुस्तक रटने की आवश्यकता नहीं । पुस्तक पढ़ना इस में जानकारी लाभ करके कार्य का आरंभ करने के लिये है और ये अपने उद्योग में बहुत आगे निकल गए हैं किंतु गुरु-मुख से मंत्रोपदेश ग्रहण करने और इतनी सी क्रिया सीख लेने के सिवाय ये कुछ नहीं जानते हैं। हाँ ! ये जितनी इसकी साधना करते जाते हैं उतना ही आनंद बढ़ता जाता है। बस उस आनंद में आनंद बढ़ाने के लिये ही ये पढ़ने लगे हैं । गौड़बोलेजी ने अध्याय के छोड़कर नित्य इनकी कुटी' पर जाना आरंभ कर दिया है। साधार लिखना पढ़ना सीख लेने के अनंतर उन्होंने पहले "विचार सागर" का मनन करवाया है, फिर "भगवद्गीता" का । किंतु इन दोनों का सीखना भी विलक्षण हैं। मानो ये पहले ही से उसे जानते हैं, पढ़ा हुआ पाठ भूल गए हैं सो पंडित गौडबोले के पढ़ाने से पुरानी बातों का उन्हें स्मरण हो आता है । जिस विषय पर विचार करने में और विद्यार्थियों को महीनों लग जायं उसे ये दिनों में अपने मन पर दृढ़ कर लेते हैं। भगवद्गोता के लिये ये