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अकेला साया कर सकता है और न दो हाथ ।जबदशों इंद्रियां मन की इच्छा के अनुसार मिल जुलकर अपना अपना काम करती हैं तब ही शरीर चलता है । "याज्ञवल्क्य स्मृति" में देशप्रबंध की व्यवस्था कुलपति, कुलपतियों पर ग्रामपति और फिर बढ़ते बढ़ते राज्यपति, राजा, इस तरह की है । "जिन ते संभल सकत नहिं तन की धोती ढीली ढाली देशप्रबंध करेगें यह कैसी है खास खियाली । किसी ने यह लोकोक्ति खूब फवती कह डाली है ।

अस्तु । भगवानदास के गृहराज्य का यह पहल दृश्य हैं किंतु दूसरे * सीन ने बिल्कुल तख्ता उलट दिया । बूढ़े के जाते ही पहले सीन पर परदा पड़ गया। उसके मित्र ने जहां तक उससे बन सका, तन मन और धन से सँभाला परंतु उसकी अधिक दिन दाल न गलने पाई। जो कार्य कर्तव्यबंधन में बाँधकर नहीं किया जाता है उसकी चेपा चापी बहुत समय तक नहीं चल सकती । “काठ की हडिंया बार बार नहीं चढ़ती है ।" बूढ़े के जाते ही श्रृखला गई, दबाव जाता रहा, कर्तव्य का चूर मूर हो गया और कलह का, स्वार्थ का, मनमुटाव का और ईष्र्या का सीन खड़ा हो मृदु, मधुर और मंद प्रेम से वह अत्याचार नहीं देखा गया इसलिये वह भी अपना बधना बोरिया लेकर चलता बना । अब भाई भाई में नहीं बनती हैं, लुगाइयों लुगाइये में गली गलैज होती है, खसम जेरू में मार पीट होती है और