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देखने पर मूर्ति में दिखलाई देती है और दर्शन होते ही साक्षात् करने का अनुभव हो उठता है वैसे ही वह क्षणा- क्षणा में पुत्र के शरीर में पतिदर्शन का आनंद लूट रही है, किंतु जैसे भगवान् को साक्षात् दर्शन होते ही मनुष्य के मूर्ति की अपेक्षा नहीं रहती उसी तरह पति का दर्शन होते ही वह अपने आपे को भूल जाती हैं, पुत्र को भूल जाती है और सब कुछ भूल जाती है । बस जिधर देखो उधर पति परमात्मा ।

इस तरह यदि पाठक प्रियंवदा में राज का उदय समझ ले तो उनकी इच्छा है। राग स्त्रियों का स्वाभाविक धर्म है । पतित्रत का प्रधान प्रयोजन ही राग है और इस प्रकार का राग ही साध्बी तलनाओं की गति है क्योकि पति को जब वे साक्षात् परमात्मा मानती हैं तब वहां उनकी गति है। जब कीड़ा भौंरे के भय से ही भ्रमर बन्द जाता है तब इस तरह पति की आत्मा में पलो अपनी आत्मा को जोड़ दे तो क्या आश्चर्य! इसी लिये पति पत्नी के दो भिन भिंन शरीर होने पर भी पत्नी अद्वगिनी कहलाती है। यदि ऐसा न हो तो दोनों के शरीर को सी नहीं दिया जा सकता, दोनों को खड़ा चीरकर एक दूसरे से जोड़ नहीं दिया जा सकता!

किंतु पंडित जी स्त्री-सुख में, पुन्न-सुख में और गृहस्वाश्रम में मग्र रहने पर भी 'जल कमलवत' अलग है। समय पढ़ने पर वह यदि राग दिखलाते हैं तो हद दर्जे का और बुरी बातों से उनका दोष दिखलाई देता है तो सीमा तक, किंतु उनके