थी जिसके स्मरण होते ही दु:ख के समय भी, भय की विरियाँ भी प्रियवदा हँस पड़ी। उसके पति के यह भेद मालूम होगा तब ही उन्होंने मेरे ऐसा अनुचित बर्ताव करने पर भी हँसकर टाल दिया नहीं तो वे अवश्य मुझे प्रयाग के स्टेशन पर पीटे बिना न छोड़ते । कांतानाथ को मेरी हरकत अवश्य बुरी लगी थी। तब ही उन्होंने मेरी लाते और घूंसो से खबर ले डाली । उनकी लाते और घूंसे अब तक कसकते हैं। उनके चेहरे के भाव से स्पष्ट होता था कि उन्हें प्रियंवदा के हँसने में उस पर संदेह हो गया है।
अच्छा आप यह पूछेंगे कि वह बचपन की कौन सी बात यी जिससे सुनते ही प्रियंवदा हंस उठी। बात कुछ ही थी । कुछ बात हो तो कहूँ ! बात यही थी---‘मोरी मे का बेर ।* आप शायद इससे यह समझ बैठे कि उसने कभी मोरी में से उठाकर बेर खा लिया हेगा। नहीं ! सो बात नहीं थी । वह जन्म से ऐसे घर में पली थी कि यदि उसके माता पिता को इस प्रकार का झूठा भी संदेह हो जाये तो वे उसे गोमूत्र पिलाते पिलाते और गोबर खिलाते खिलाते अधमरी कर डालें ।
"बात इस तरह पर थी कि जिस समय मेरी उमर तेरह चौदह वर्ष की और उसकी सात आठ वर्ष की होगी, मैं अपने पिता के साथ उसके गांव में सात आठ महीने रहा था। हम दोनों के घर एक दूसरे से बिलकुल सटे हुए थे और हजार मुझे पिताजी मारते पीटते परंतु मुझे आवारा भटकने के