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लीला है !"गोविंद की गति गोविंद जाने ।” हम पापी जीव क्या जानें कि कौन हारा और कौन जीता । आप यदि कृष्ण के भक्त हैं तब भी वही हारे क्योंकि भक्तों के भगवान् सदा कनौड़े रहते हैं, आप यदि दादा हैं तब भी वही । अस्तु आप सब प्रकार से सुर-श्रेष्ठ हैं। मेरे इष्टदेव के इष्टदेव हैं क्योंकि मैं लघुमति से नहीं जान सकता कि तीनों में से कौन बड़ा और कौन छाटा ? मेरे लिये तीन साल, तीनों एक और तीन में से प्रत्येक में तीनों के दर्शन होते हैं । संसार की व्यवस्था के लिये नाम तीन हैं किंतु हैं तीनों ही एक । हे प्रभु ! रक्षा करे । मुझे भगवान् की अविचल, अव्यभिचारिशी भक्ति प्रदान करो । मैं आपकी अनंत सृष्टि में एक कीटानुकीट हूं, पापी हूं, अपराध हूं। क्षमा करो नाथ ! रक्षा करे !!" बस इस तरह कहते कहते पंडित जी गद्गगद् हो गए, उनके नेत्रों से अश्रुधारा का प्रवाह होने लगा और थोड़ी देर के लिये उनका देहाभिमान जाना रहा ।

ऐसे दर्शन करके प्रसन्न होकर जब ये लोग मंदिर से लौटे तब गौड़बालो ने एक प्रश्न छेड़ दिया। इन्होंने पूछा कि क्येां पंडितजी, ब्रह्माजी के मंदिर अन्यत्र क्यों नहीं हैं ? और देवताओं के एक एक जगह दस बीस मिलेंगे, अधिक मौजूद हैं फिर इनका केवल यही क्यो ?"

"शास्त्र की सम्मति इसमें कुछ भी हो । जो कुछ है उसे आप भी जानते हैं और थोड़ा बहुत मैं भी ! परंतु मेरी समझ में