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“बेशक उपाय तो उत्तम है परंतु फिर “शुभस्य शीव्रम् इतनी देरी क्यों है ? यह कार्य तो ऐसा है कि जितना शीघ्र हो सके उतना ही अच्छा है। इसके लिये रुपयों का भी भार अधिक नहीं पड़ सकता क्योंकि साल भर में कम से कम लाख डेढ़ लाख यात्री आते होगे। यदि से सुखपूर्वक इस कार्य के लिये चार चार आना भी डालें तो सहज में हजारों रुपये इकट्टे हो सकते हैं और इस शुभ अनुष्ठान के लिये देश के और भी सुपूत, साई के लाल मुख नहों मोड़ेगे ।”

"वास्तव में उद्योग का अभाव है । आपस की फूट से विलंब हो रहा है। अब आपके कहने से उन्हें फिर उकखाऊँगा । खूब परिश्रम करूंगा । सफलता परमेश्वर के हाथ है परंतु कार्य यदि सबे अंत:करण से किया जायगा तो अवश्य सफलता हमारी चेरी है ।"

“निःसंदेह ! सचे अंत:करण की प्रत्येक कार्य में अवश्यकता है। अंत:करण लगाकर तीर्थ-सेवन न करने की जे फल ग्राह रूप से मिल रहा है वह आपने देख ही लिया ।"

इस प्रकार बातें करते करते धरणीधर महाराज इन सब को लेकर देव-दर्शन के लिये वहाँ से रवाना हुए किंतु कोई सौ डेढ़ सौ कदम चलकर इन्होंने जब दो बालक संन्यासियों के दर्शन किए तब पंडित जी एकदम रुक गए ।