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इन्हें चिताया तब कुछ अपनी लज्जा को छिपाते हुए सचेत
होकर पंडितजी बोले --
"बाबा, मैं तेरी क्या स्तुति करूँ! तू मेरे इष्टदेव का भी इष्टदेव है।
मुझ जैस मन के दरिद्री, धन के दरिद्री श्रीर तन
दरिद्री में इतनी शक्ति कहाँ जो तुझे पूजा से, बंदना से,
आराधना से प्रसन्न कर सकूँ। परंतु शास्त्र कहते हैं, वेदों ने
कहा है और शिष्ट सज्जन कह गए हैं कि तू धन से प्रसन्न नहीं
होता, तन से प्रसन्न नहीं होता, केवल मन से प्रसन्न होता है।
जो मन से भक्तिपूर्वक केवल आक, धतूरा चढ़ा देता है
बस इसी से तू राजी है, उसी की निहाल कर देता है। मैं
धन का दरिद्री नहीं हूँ। निर्धन होने पर भी मुझे रुपया वैभव
नहीं चाहिए। जो कुछ है वही बहुत है। जो है वह भी
एक तरह की उपाधि है। किसी दिन उससे उदासीन होकर
वानप्रस्थ आश्रम नसीब हो तव जीवन का सार्थक्य है। तू
सचमुच भोलानाथ है। और और देवतायों को, मेरे आराध्य
देव तक को प्रसन्न करने के लिये एक उमर का काम नही,
एक युग का काम नहीं और एक कल्प का काम नहीं, जन्म-
जन्मांतर तक,
युगों तक, कल्पों तक नाक रगड़ते मर जाओ
तब कहीं उसके प्रसन्न होने की पारी आए। सोना जितना
तपाया जाता है उतना ही उसका मूल्य बढ़ता है। बस
अनन्य भक्ति का दृढ़ करने के लिये वह भी अपने भक्त को
पहले खूब तपा लेता है तब प्रसन्न होता है और फिर ऐसा