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"नाथ, हाथ जोड़ती हूँ! अजी पैरों पड़ती हूँ! ऐसे लोगों
से न उलझो! कहीं कुछ शाप दे डालै तो मैं घर की रहूँ न
घाट की!"
"अरे रह रे रह! चुप रह!!" कहकर पंडितजी ने उस साधु की गर्दन पकड़ते हुए दो घूँसे पीठ पर मारकर "जो पर- नारियों की ओर कुदृष्टि से देखे और गंगा माई की छाती पर देखे वह महात्मा! उसकी फटकार से एक ब्राह्माण भस्म हो जायगा! छुई मुई है?" कहते हुए फिर अपनी जगह पर बैठ- कर कहा --
"अच्छा महात्मा जी, मैं आपको सुनाऊँ गंगाजी के माहा-
त्मय! शास्त्र के प्रमाण सुनने के तुम अधिकारी नहीं हो।
भक्ति का तत्व समझाने की तुममें बुद्धि नहीं। बुद्धि होती
तो आज इस (अपनी गृहिणी की ओर अंगुली दिखाकर)
विचारी को बुरी नजर से न देखते, इसको और बुरे बुरे इशारे
न करते। अच्छा सुनो यह उसी पतितपावनी गंगा का वरण-
तारण ब्रह्मस्वरूप जल है जिसकी प्रशंसा में पश्चिमी वैज्ञानिक भी
मुग्ध होते हैं। बड़े बड़े डाक्टरों ने निश्चय कर लिया है
कि इसके समान संसार की किसी भी नदी का जल नहीं।
ऐसा हलका नहीं, ऐसा सुपच लही और इतने वर्षों तक निर्वि-
कार ठहरने की किसी जल में शक्ति नहीं। और नदियों के,
कुओं के बढ़िया से बढ़िया जल को रख छोड़िए। दो चार
दस दिन में कीड़े कुलबुलाने लगेंगे। जल सूखकर उड़