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"अच्छा नहीं चाहिए तो (क्रुद्ध होकर) किनारे के पनालों की बदबू चाहिए, जिसमें लाखों आदमियों का पाय- खाना पेशाब गिरता है, जिस पानी को पीने से आदमी बीमार होकर मर जाना है और जो बदबू के मारे अभी हमारा दिमाग फाड़े डाल रहा है, उसकी इतनी प्रशंसा? चौथे आस्मान पर बढ़ा दिया। "

"महिमा घटी समुद्र की रावण बस्यो पड़ोस। ( अपने क्रोध को रोककर) तुम्हारे जैसे कुकर्मियों के कुसंग से। तुम्हारे जैसे पापियों ने (मन ही मन -- गुस्सा तो ऐसा आता है कि अभी लात मारकर इसकी ऐंठ निकाल डालूँ! साला माता की निंदा करता है) ही इस काशी क्षेत्र को बदनाम किया है? तुम जैसे दुष्टों से दुःख पाकर ही भले आदमियों ने " गँड़ साँड़ संन्यासी, हमसे बचे तो सेवे काशी" की चितौनी दी है। तुम जैसे पामरों के कारण ही "प्रेम- योगिनी" में भारतेंदु हरिश्चंद्र को काशी के लिये इस तरह लिखना पड़ा है --

"आधी काशी भांड भँडरिया बाभन औ संन्यासी।
आधी काशी रंडी मुंडी राँड खानगी खासी॥
लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे वे विश्वासी।
महा आलासी झूठे शुहदे बेफिकरे बदमासी॥
मैली गली भरी कतवारन सँडो चमारिन पासी।
नीचे नल से बदबू उबलै मनो नरक चौरासी॥