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कारीगरी का घर है ही किंतु राजपूताने के सब ही राजवाड़े लगभग किसी न किसी तरह की कारीगरी के लिये प्रसिद्ध है, जैसे बीकानेर की लोई, बूंदी की पगड़ी और कोटे के डेरिए। इनके सिवाय कानपुर, अहमदाबाद, दिल्ली, बंबई आदि की मिलों की आढ़त खोल देने के काम अच्छी तरह चल निकलने की आशा थी और राजपूताने में देशी माल पहुँचाने और वहाँ का बना हुआ तथा वहाँ की पैदावारी का माल मँगाकर अन्यत्र भेजने के लिये अजमेर से बढ़कर कोई जगह नहीं, और अजमेर के रेलवे वर्क-शप के जो कारीगर नौकरी छोड़कर स्वतंत्र जीविका करना चाहें उन्हें उत्तेजना देनेवाला अभी तक कई नहीं। बस इन बातों को ध्यान में लाकर इन्होंने कंपनी खोलने का एक कच्चा चिट्ठा तैयार किया और यह काम बड़ा समझकर भाई की पसंदगी पर रखा गया। राजपूताने के राजवाड़ों में गेाचारण की भूमि की सुविधा देखकर गोरक्षा के काम को व्यापार के लक्ष्य से आरंम्भ करने का जो विचार किया सो जुदा ही।

इनकी गृहिणी सुखदा का जेवर, कपड़ा, बरतन आदि। जो सामान, राई रत्ती इन्हें लूट से वापिस मिला था वह अवश्य ल स्त्रीधन था। जब उस स्त्री के ही यह स्वामी थे तब उसके माल पर इनकी मालिकी हो तो आश्चर्य क्या? किंतु नहीं! इन्होंने उसे एक भंडार में अलग रखवाकर उसकी ताली उसे दे दी और उससे ताकीद भी कर दी कि "जब तक भाई साहब