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में, प्रयागराज की शोभा कुछ इसलिये नहीं है कि वह अच्छा जनपद है। नगर की शोभा यदि देखनी हो तो अयोध्या में मिलेगी। चाहे काल पाकर हजार पाँच सौ या इससे अधिक वर्षों से यहाँ नगर बन गया हो अथवा दारागंज, मुठ्ठोगंज और कीटगंज जैसे अनेक छोटे मोटे गाँयों का मिलकर एक नगर बन गया हो किंतु प्रयाग की शेभा, सच्ची शोभा, भरद्वाज महर्षि के आश्रम से है, जब उस आश्रम में साक्षात् महर्षि-प्रवर निवास करते थे, उनके सहसत्रावधि शिष्य इन पुण्यभूमि में, इस वन में अपनी अपनी कुटियाँ बनाकर रहते थे, बड़े बड़े राजा महाराजा वानप्रस्थ आश्रम का पालन कर उनसे उपदेशामृत का पान करते थे, वन के कंद मूलादि खाकर केवल त्रिवेणी-तोय ने निर्वाह करना ही उनकी जीविका थी। बस झूसी की पर्ण-कुटियों, अधिक नहीं पांच सात झोपड़ियों का दर्शन करते ही पंडितजी की आँखो के सामने यही ऊपर लिखा हुआ दृश्य आ खड़ा हुआ। इन्होंने गौड़बोले से कहा --

"समय के अनुसार आजकाल का दृश्य बुरा नहीं है। अब भी यहाँ अनेक विद्या-मंदिर हैं, और विशाल विशाल प्रसाद हैं, किंतु हाय ! वह पुराना, पुराणप्रसिद्ध दृश्य एकदम भारतवर्ष से लोप हो गया। समय की बलिहारी है! जिस तपोभूमि में ऋषियों के शरीर से मृगशावक अपने सींगों को छुआ छुआकर अपनी खुजली मिटाते थे वहाँ अब इक्के, बग्घी और मोटरों की घरघराहट और "हटो बचो!" की