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यों ही भोले भाइयों से चरण पुजवाते हैं और इसी कारण से जहाँ तहाँ अनेक अनाचार होते हैं।"

"हाँ मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ। वास्तव में इस तरह की अविद्या श्रद्धा पर, सनातनधर्म पर कुठार चलानेवाली है। यदि परमेश्वर उन्हें सुबुद्धि दे, किसी तरह उनके दिल में यह भय बना रहे कि विद्वान् और सदाचारी ही गद्दी के पैतृक अधिकार का वास्तविक अधिकारी है तो हिंदू धर्म का बड़ा उपकार हो, क्योंकि अभी तक सर्वसाधारण के हृदय से श्रद्धा नहीं गई है।"

इस तरह बातें करते करते ये लोग झूसी गए। जहाँ महात्माओं के निवास करने की पर्ण-कुटियाँ थीं, जहाँ वन के कंद मूल फल खाकर गंगाजल पान करने की सुविधा थी, वहा अब जंगल कटकर खेतियाँ होने लगीं। गाँव के गाँव बस गए। केवल झूसी पर ही यह दोष क्यों दिया जाय। जहाँ आजकल प्रयाग नगर बस रहा है, जहाँ आजकल युक्त प्रांत की राजधानी है, वहाँ प्राचीन समय में ऋषियों के अश्रम थे। जहाँ आजकल व्यापार से लेन देन से, नैकरी धंदे से रूपए ठनाठन बजते हैं वहाँ किसी दिन ॠषि महर्षि श्रोताओं को उपदेश का धन देते और भक्ति का व्यापार करते थे। जहाँ आजकल कभी कभी दीन दुखियों का हाहाकार सुनाई देता है वहाँ निरंतर वेदध्वनि कर्णकुहरों में प्रवेश कर हृदय को पवित्र किया करती थी। प्राचीन इतिहासों में, पुराणों