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एक महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी महाराज की अरैल में बैठक और झूसी (प्रतिष्ठानपुर) में महात्माओं के दर्शन हुए। बस ये दो ही मुख्य थे। पंडितजी अनन्य वैष्णव थे और गैड़बोले अनन्य शैव । मतामत पर इन दोनों पंडितों में विवाद, नहीं नहीं, संवाद भी बहुत हुआ करता था किंतु इन दोनों में एक कारण से पटती भी कम नहीं था, क्योंकि दोनों ही हठधर्मी नहीं थे, दुराअही नहीं थे और दोनों ही गेस्वामी तुलसीदासजी की तरह दोनों को माननेवाले थे। और जब कोई इन्हें छेड़ता यह कह दिया करते थे कि --

"विष्णु के आराध्य देव शिव और शिव के इष्टदेव विष्णु। हम नहीं कह सकते कि दोनों में कौन बड़ा है। जब भक्त का और पतिव्रता स्त्री का दर्जा समान है तब हमारे लिये तो हमारा इष्टदेव ही मुख्य हैं।"

तर्क करनेवाले जब एक ओर से शिवपुराणादि की कथाएँ इनके सामने रखकर शिवजी की प्रधानता सिद्ध करते थे तब वैष्णव लोग श्रीमद्भागवत में से महर्षि भृगु की परीक्षा से विष्णु की प्रधानता का चित्र इनके सामने ला खड़ा करते थे, किंतु इन दोनों का सिद्धांत अटल था और मन ही मन, कभी एकांत में पति से जबानी भी, प्रियंवदा कहा करती थी कि --

"इसका अनुभव जैसा स्त्रियों को होता है वैसा पुरूषों को नहीं। संसार में सुंदर से सुंदर और गुणवान् से गुणवान् पुरुष मौजूद होने पर भी जैसे एक पतिव्रता के लिये उसके