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प्रकरण -- २६
पौराणिक प्रयाग

"मन का साक्षी मन है। जहाँ एक मन दूसरे से मिल जाता है वहाँ परस्पर एक दूसरे के मन की थाह पा लेना भी कठिन नहीं होता। सचमुच ही यह परमेश्वर का बनाया हुआ टेलीफोन है। केवल चाहिए मन विमल होना और उसमें एकाग्रता से विचार लेने की बलवती शक्ति। परमात्मा के निरंतर ध्यान करने से, वर्षों के अभ्यास से और सदाचार से यदि भगवान् कृपा करें तो वह शक्ति आ सकती है। यही नर से नारायण बनने का मार्ग है क्योंकि मन ही मनुष्य के वंधन का और छुटकारे का कारण है। आगे बड़े बड़े महात्मा ऋषि महर्षि हो गए हैं और दुनिया का उपकार करने में जिन्होंने नाम पाया है वह केवल मन को वश में करने से। किंतु यह मन भी बड़ा ही जोरदार घोड़ा है, जहाँ जरा सी लगाम ढीली हुई कि सवार राम तुरंत ही मुँह के बल गिरते हैं। बस वही मन आज दौड़ दौड़कर बारंबार कर्ण पिशाची की तरह मुझे आ आकर खबर दे रहा है कि कांतानाथ का काम हो गया। आज अकस्मात चित्त को आनंद होता है। दक्षिण नेत्र और भुजा फड़क फड़ककर इस बात की गवाही दे रहे हैं और इस लिये भरोसा होता है कि उसकी प्रसन्नता का