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न किसी काम के लिये बाहर गए हुए थे वे दस मिनट में सब इकट्ठे गए और तब ज्योंही आनेवाले ने "सावधानाभवंतु" कहकर प्रयागमाहात्म्य सुनाने के लिये पुस्तक खेली, भोला कहार सबके बीच में खड़ा होकर बड़बड़ाने लगा --

"ऐसा हत्यारा पंडत! राम! राम!! थू थू! मछली खानेवाला पंडत !" एक गँवार कहार के मुख से एक विद्वान का और सो भी कथाव्यास का अपमान सुनकर पंडित प्रियानाथ को बहुत क्रोध आया। उनका मिजाज लगाम तुड़ाकर यहाँ तक बेकाबू हो गया कि वह भोला को मारने दौड़े। उसने कहा "चाहे आप मारो चाहे काटो पर ऐसे मछली खानेवाले पंडत नहीं होते। हम गँवार कहार भी जब तीर्थों में आकर ऐसा बुरा काम करना छोड़ देते हैं तब यह पंडत होकर ऐसा बुरा कुकर्म हैं! झूठ मानो तो पूछ लो इन पंडतजी से। मैंने अभी इनको मछलियाँ खरीदते हुए देखा हैं।"

इस पर जब प्रियानाथ ने पंडितजी से पुछा तब वह शर्माकर गर्दन नीची झुकाए सिटपिटाकर बाले -- "हाँ महाराज, छिपाने से कुछ लाभ नहीं! हम लोग खाते हैं और शास्त्र में विधि भी है।"

"नहीं! विधि नहीं हो सकती। निषेध है। मनुस्मृति में स्पष्ट है --

"यो यस्य मांसमश्नाति स तन्मांसाद्ध उच्यते।

मत्स्यादः सर्वमांसादस्तम्मान्मत्स्यान्विवर्जयेत्।।