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तिमिर मारकर देख लीजिए, "महताब दिवाकर" देख लीजिए और छोटे मोटे नेक ग्रंथों का अनुशीलन कर लीजिए ताकि आपको वेदों में प्रमाण ढूँढ़ने में सुगमता पड़े।

"अजी हजरत, आपके पुरखा तो फल्गू में से हाथ निकाल- कर स्वयं पिंड ग्रहण क्रिया करते थे ना? अब कहाँ गए? अब भी तो कहीं दिखलाई देते होंगे।"

"हाँ हाँ! केवल हाथ निकालकर ही क्यों? स्वयं समक्ष खड़े होकर ले सकते हैं। पितर तो पितर, ब्रह्मादिक देवता ले सकते हैं। स्वयं आपके निराकार परमात्मा साकार बनकर ले सकते हैं। उन्होंने एक बार नहीं हजारों बार अवतार लेकर भक्तों का उपकार किया है। श्रद्धा मात्र चाहिए, सदाचार चाहिए, अनन्य भक्ति चाहिए और परमेश्वर के चरणारविदों में लैा लगाने के लिये मानसिक शक्ति चाहिए। जनाव, हाथी के दाँत दिखाने के और और खाने के और हैं। आपमें से यह (एक की ओर इंगित करके) स्वयं श्राद्ध करा- कर दक्षिणा ले रहे थे और यह (दूसरे को दिखाकर) श्राद्ध कर रहे थे। किंतु सच मानिए आप जैसे अश्रद्ध आस्तिकों से नास्तिक और डावाँडोल नास्तिक से आस्तिक अच्छा है। आप न इधर में न उधर में। जो आज डंका पीटने आए हो तो कल श्राद्ध करने कराने क्यों गए थे ?"

"केवल आप जैसे हठधर्मियों के दबाव से, घरवालों के संकोच से अथवा निंदा के भय से। नहीं तो श्राद्ध में कुछ लाभ नहीं।"