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माध्यम्थ थे। दोनों शास्त्रार्थों को पढ़ लीजिए। पिष्टपेषण
करने से कुछ लाभ नहीं।"
इस पर मिस्टर अनुशीलन ने दोनों शास्त्रार्थ पढ़कर सुनाए और जब व्यवस्था दी कि "मंत्र और ब्राह्मण, दोनों भाग अपौरुषेय हैं, ईश्वर निर्मित हैं। तब फिर शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। पंडित प्रियानाथ जी बोले --
"अच्छा हुआ। एक बहुत बड़ा झगड़ा सहज में निपट
गया। हाँ! तो आपके विचार से तर्पणादि में दिया हुआ जल
और श्राद्धादि में दिए हुए पिंडादि पित्तरों के पास नहीं पहुँच
सकते। क्योंकि जब ईश्वर निराकार है तब पितर भी निराकार
होने चाहिएँ और फिर पितरों के पास जल और पिंड पहुँचा
देने के लिये कोई डाक का महक्मा भी तो नहीं जो पारसल
बनाकर पहुँचा दे। अच्छा ठीक है। आप यों ही मानते
रहिए। हमारे विचार से ईश्वर साकार भी है और निराकार
भी है। समय पर निराकार का साकार हो जाता है और साकार
से निराकार। परंतु यदि थोड़ी देर के लिये ईश्वर को और
उसके साथ हमारे पितरों को भी निराकार ही मान लें तो प्रथम तो हम जो कुछ कराते हैं उसे "पितरस्वरूपी जनार्द्दन
प्रीयताम्" इस सिद्धांत से परमेश्वर के अर्पण करते हैं। इस
सिद्धांत में पितर निमित्त हैं और ईश्वर परिणाम। दूसरे आप
देखते हैं कि तर्पण का जल और श्राद्ध के पिंड प्रत्यक्ष नहीं
पहुँचते उनका फल, उनका सार पहुँचता है और वह निरा-