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वह गया गए तब इस महापर्व को बचाकर गए। उन्होंने ठान लिया कि "महालय के महापर्व का माहात्म्य अधिक है सही परंतु श्रद्धा भक्ति से करने का फल उससे भी अधिक है।" और इसका फल भी उनके लिये अच्छा ही हुआ। जिन दिनों ये लोग गए, गया में इने गिने सौ दो सौ यात्रियों के अतिरिक्त भीड़ भाड़ का लेश नहीं था। बस इस कारण किसी जगह इन्हें श्राद्ध करने में कितनी ही देरी क्यों न लग जाय इनसे तकाजा करको इनके काम में विघ्न डालनेवाला कोई नहीं, यदि सामान उठाने में ये ढिलाई दिखलावें तो इनका बँधना बोरिया के फेंकनेवाला कोई नहीं और जगह खाली करने के लिये इन्हें रूखी सूखी सुनानेवाला कोई नहीं।
परंतु उन दिनों पंडित जी को, उनके साथियों की छटा
भी देखने योग्य थी। प्रियंवदा के मन ही मन मुसकुराने के
लिये, मन ही मन दाढ़ी मोंछ बिना प्राणनाथ का अपना सा
चेहरा पाकर हँसने को पंडित जी का चेहरा बिलकुल सफा-
चट है। पंडित जी के शुभ्र और सुदीर्घ ललाट पर श्वेत चंदन
का विशाल तिलक झलक रहा है। कमर में स्वच्छ धोती और
कंधे पर स्वच्छ उत्तरीय के सिवाय वस्त्र का नाम नहीं।
अँगुलियों में दर्भ की पवित्रो और एक हाथ में ताम्र पात्र और
दूसरे में ताम्र कलश। पैरों में आज न बूट है, न जूता है,
यहाँ लों कि खड़ाऊँ तक नहीं। आठ पहर में एक बार भोजन
और भूमि शयन।
प्रियंवदा भी रेशमी मुकटा पहने