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जान ले कि मामला कोई गहरी आपदा का हैं किंतु वह मौन। भाई के बहुतेरा पूछने पर जब इन्होंने कुछ उत्तर न दिया तब भौजाई ने पति को इशारा देकर वहाँ से हटाया। फिर भौजाई ने पूछा! उत्तर उसे भी न दिया किंतु पर्चा और तार उसके सामने डाल दिया। पर्चे में क्या लिखा था सो लिखनेवाला किसी दिन स्वयं बतला देगा। तब ही मालूम होगा कि इन दोनों का आपस में क्या संबंध है अथवा कोई और ही मतलब है। तार था कांतानाश के मित्र भोलानाथ का। उसमें लिखा था --

"यदि तुम्हें अपनी इज्जत बचानी है तो यात्रा छोड़कर तुरंत अपनी ससुराल पहुँचो। नहीं तो पछताना पड़ेगा।"

इन दोनों को पढ़कर प्रियंवदा कुछ कुछ समझो हो तो समझी हो क्योंकि पर्दे के भीतर रहकर भी स्त्रियों के पुरुषों की अपेक्षा दुनिया का बहुत हाल मालूम रहता है किंतु न तो प्रियानाथ के ध्यान में आया और न ठीक कांतानाथ के। हाँ! भोलानाथ की बातें सदा वावन तोला पाव रत्ती निकलती थीं। बस इसलिये भाई की आज्ञा पाकर, अपना करम ठोकते हुए कांतानाथ वहाँ से विदा हुए। इससे दंपती को बहुत ही दुःख हुआ। खैर! इसके बाद गत प्रकरण में पाठकों ने कांतानाथ को उनकी ससुराल में देख ही लिया है।

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