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नहीं रखा! उस हँसी के लिये तो छोटे भैया को मेरी चाल-
चलन पर अब तक संदेह ही बना हुआ है। और जरा सोचो
तो सही। इन पंडितजी महाराज ने ही क्या समझा होगा?"
"नहीं! इनको मैंने समझा दिया। असली बात कह दी। जब घर पहुँचेंगे तब छोटे से भी कह देंगे। फिर?"
"फिर क्या? कुछ नहीं! परंतु यह तो बतलाओ कि उस दिन जब पंडितजी ने इस बात का प्रसंग छेड़ा सब टाल क्यों दिया? उसी समय स्पष्ट कर दिया होता?"
"नहीं किया। हमारी मौज! उसका कुछ कारण था।"
"अच्छा कारण था तो तुम्हारी इच्छा। न कहो। बद- नामी तो तुम्हारी भी है। 'है इन लाल कपोत व्रत कठिन नेह की चाल, मुख सो आह न भाखिये निज सुख करो हलाल।' अच्छा न कहिए।" इन पर -- "अरी बावली इतनी घबड़ा उठी! अच्छा तू आग्रह करती है तो घर पहुँचते ही छोटे से कह देंगे, पाँच पंचों में कह देंगे, सभा सोसाइटी में कह देंगे और अखबारों में छपवा देंगे। बस हुआ!"
"अच्छा जाने दो इस बात को। और प्रसंग छेड़ो। नहीं कहना चाहते हो तो ऐसा जिक्र छेड़ दो जिससे मेरा जी बहल जाय!"
"खैर! तैंने तो काशी आकर फायदा उठा ही लिया।
तेरी वर्षों की हाय हाय मिट गई परंतु क्या मैं यहाँ से रीते
हाथों जाऊँ? मैंने तुझसे भी अधिक लाभ उठाया है। तेरे