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छूटा। किंतु गुरुजी का सौम्य मुख, भव्य ललाट बतला रहा है कि इनके हृदय में क्रोध का लेश नहीं, अस्तु गुरूजी ने इन लोगों से योंही पूछकर इस तरह इनका मौन तोड़ा --

"बाबा क्यों आए हो? जो कुछ इच्छा हो कहो?"

"महाराज, आप हमारे मन की बात जाननेवाले हैं, त्रिकालदर्शी हैं। आपसे क्या निवेदन करें?"

"नहीं बाबा, मैं आपकी तो क्या अपने मन की बात भी नहीं जानता। जो त्रिकालदर्शी हैं वे हिमालय गिरि-गुहा छोड़कर यहाँ दुनिया को ठगने नहीं आते। मैं तो भिखारी हूँ। काशी के विद्वानों का बड़ाई सुनकर स्वयं उनसे उपदेश की भिक्षा माँगने आया हूँ। आप ही कुछ भिक्षा दीजिए।"

"हैं महात्मा! यह उल्टी गंगा! उलटी गंगा न बहाइए। जो आपसे भीख माँगने आए हैं उनसे भीख! हम जैसे विद्या के दरिद्रो, मन के दरिद्रो, और सब तरह के दरिद्री के पास से शिक्षा की भिक्षा! हाँ भगवान् दत्तात्रेय की तरह यदि आप भी हों तो जुदी बात है।"

जिस समय दीनबंधु की गुरू महाराज से इस तरह की बातें हो रही थीं उसी समय प्रियवंदा ने अपने अंचल में से खोलकर दो अशर्फियाँ भेंट कीं और साथ ही उसकी झोली में कुछ केले, नारंगी, अनार आदि थे वे उनके चरणों में रख- कर प्रणाम किया। "हमने आज मधुकरी पा ली है। संग्रह करना अच्छा नहीं।" कहकर महात्मा ने एक एक करके फल