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जैसे विद्वान जो युरोपियन समाज में संस्कृत पढ़कर ऊँचा
आसन पा चुके हैं स्वयं कहते थे कि "हम लोग संस्कृत महा-
सागर की गहराई में घुसना तो दरकिनार किंतु उसके किनारे
पर पहुँचने की भी अब तक योग्यता नहीं रखते। हम जो
कुछ राय देते हैं वह दूर की कौड़ियाँ बीनकर।" अब जरा
यहाँ के विद्वानों की सादगी की ओर नजर डालिए। थोड़े
हेर फेर के अतिरिक्त उनका जीवन वही प्राचीन समय के
ऋषियों का सा है। वैसे ही वे अल्प संतोषी वैसे ही ब्राह्म-
णोचित पट्कर्मों में निरत। इनके यहाँ विद्यादान के लिये
सदाव्रत, गुरुकुल मौजूद है। कोई भी विद्यार्थी चला आवे
उसे पढ़ाने में कभी उन्हें इंकार नहीं। इनके घर बालकों के
अध्ययन घोष से निनादित रहते हैं, जो वैश्वदेवादि नित्य और
नैमित्तिक यज्ञों के समय "स्वाहा" से और आद्धादि की विरियाँ
"स्वधा" के कर्णमधुर स्वरों से गुंजायमान हैं, जहाँ जाकर
दस मिनट खड़े रहने से कहीं वेदमंत्रों से काम पवित्र होते
हैं तो कहीं साहित्य शास्त्र की रचना "किंकवेस्तस्य काव्येन किं
कांडेन धनुष्मता। परस्य हृदये लग्ने न धूर्णयति यच्छिरम्।।"
इस लोकोक्ति से सिर हिल उठता है। उनकी दशा भी, आर्थिक
स्थिति भी वैसी ही है जैसी विद्यार्थियों की। उनसे भी निकृष्ट।
क्योंकि विद्यार्थियों को पेट पालने का कुछ भार नहीं किंतु उन्हें
गृहस्थी का पालन करना है। ऐसी दशा में उनकी दी हुई
व्यवस्था पर यदि लोग दोष देते हैं तो उनकी भूल है।"