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उन पर मनन कर अपने अंत:करण में उन उत्कृष्ट भावों को ठसाना, बस "श्रवण" शब्द से यही प्रयोजन है। "कीर्तन" का दृश्य आपने अभी देख ही लिया। बस इसकी व्याख्या मैं क्या निवेदन करूँ? "स्मरण" का सबसे बढ़िया उदा- हरण महर्षि वाल्मीकि जी हैं, जो "राम राम" की जगह "मरा मरा" जपते हुए भील के बालक से महर्षि हो गए, साहित्य शास्त्र के आचार्य हो गए। केवल मन की एकाग्रता चाहिए। यदि मन की सच्ची लगन न हो तो --

"मनका फेरत जग मुआ गया न मन का फेर।

कर का मनका छाँड़ कर मनका मन का फेर॥"

इस लोकोक्ति से अँगुलियों कं पोरुवे और माला के मनिए घिस जाने पर भी कुछ नहीं, अनेक जन्म बीत जाने पर भी निर- र्थक। पादसेवन की, अर्चन और वंदन की व्याख्या अभी मंदिर के पट खुलते ही श्रीमुकुंदरायजी स्वयं कर देंगे। ये तीनों प्रकार एक दूसरे से परस्पर जलदुग्धवत, दूध-बूरे की भाँति मिले हुए हैं। मूर्ति-पूजा इन तीनों ही का प्रकार है। भगवान् के मंदिर में बैठकर पक्षपात से नहीं कहता। शैव, शाक्त, गाणपत्य और वैष्णव क्या सब ही संप्रदायों में अपने अपने सिद्धांतों के अनुसार "यथा देहे तथा देवे" के मूल पर सेवा भक्ति का प्रकार विलक्षण है, स्तुत्य है और ग्राह्य है, किंतु महाराज, सत्य मानना, जितनी बारीकी बल्लभ संप्रदाय में देखी, उतनी किसी में नहीं। वास्तव में वह अलौकिक है।