पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१३५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(१२८)


उसकी जान निकाली जाती है। पेट सूखकर आँतें पीठ से जा चिपटी हैं। आँखें बैठ गई और गल पिचक गए हैं परंतु ऐसे पामर का, उसकी नौकरानियों का भरोसा ही क्या?

कुछ भी हो आज वह साम, दाम, दंड और भेद से -- जैसे बने तैसे प्रियंवदा के अपने गले के पक्के इरादे से आया था। आज उसने ठान लिया था कि "यदि प्रियं- वदा स्वीकार न करे तो या तो आज वह नहीं या मैं नहीं।" किंतु उसके समस्त उद्दोग, सब हिकमतें, सारी चालबाजियाँ वृथा गई। उसके समस्त प्रयत्नों पर पानी फिर गया और ऐसे जब वह सब तरह निराश हो गया तब उसने, क्या उसकी बेतावी ने प्रियंबदा को हृदय में लगाकर अपना कलेजा ठंढा करने के लिये हाथ बढ़ाए। जिस समय उसने हाथ फैलाए प्रियं- वदा ऐसी जगह में घिर गई थी कि उसका कालपाश में से निकल जाना असंभव था। बस एक ही मिनट में उसके पाति- व्रत के नष्ट हो जाने में संदेह न था। वह पहले खूब रोई, चिल्लाई और तब बस ऐसे समय उसने विपत्ति-विदारण भक्तवत्सल परमात्मा को याद किया। वह बोली -- राग सारंग --

'अब कुछ नाहीं नाथ रह्यो।

सकल सभा में बैठि दुशासन अंबर आनि गह्यो॥

हारयो सब भंडार भूमि अरु अब बनबास लह्यो।

एको चीर हुतो मेरे पर सो इन हरन चह्यो॥