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उसे हम आपके घर पहुँचवाकर अभी आ रहे हैं।"

क्या सचमुच? आप कौन हो। आपने मुझ अभागे पर इतनी दया क्यों की? यदि आप सच्चे हैं आपने हमें प्राण दान किया। आप देवता हैं! मनुष्य नहीं!"

देवता नहीं (कानों में अँगुलियाँ डालकर) राम राम! काटों में न घसीटो। मिथ्या प्रशंसा करके आकाश में न चढ़ायो। मैं आदगी हूँ! एक दीन ब्राह्मण हूँ। अनि इस शरीर से किसी का कुछ उपकार हो जाय तो सौभाग्य! काशी के गुंडों से दीन दुखियों की रक्षा करना, परमेश्वर शक्ति दे, यही व्रत है। रक्षक तो नहीं है। यदि हो तो निमित्त मात्र मैं भी हो सकता हूँ। जिस स्त्री के रोने को आबाज तुमने सुनी थी वह प्रियंवदा थी। तुम्हें बचाने में उसकी जान जाती समझकर पहले मैं उनके पास गया। बस इसी लिये तुम लुट गए। इधर तुम्हें एकाकी छोड़ देने से तुम्हारे प्राणों पर आ बनती। क्योंकि जब से तुमने नाव में उस साधु को मारा तब ही से गुंडे तुम्हारे पीछे लगे हुए हैं। परंतु घबड़ाओ नहीं अब तुम्हारा बाल भी बाँका न होगा।"

"महाराज कैसे विश्वास हो कि आप सच्चे हैं। मुझे यहाँ लाकर लूट लेने और फँसा जानेवाला भी ऐसा ही भला बनता था। मुझे तो यहाँ रस्सी रस्सी में सर्प दिखलाई देता है। आप भी उसकी तरह मुझे फँसाकर इस कुलटा की रक्षा करने के लिये प्रयत्न करते हों तो आश्चर्य क्या?"