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क्या कहा जाय! बस वह अनजान आदमी उन्हें चक्कर में डालने के लिये, ताकि वह यह न जान सकें कि कहाँ जा रहे हैं, भूलभुलैया में डालकर एक गली से दूसरी में और दूसरी से तीसरी में घुमाता हुआ दाल की मंडी में ले गया। यद्यपि पहले भी दो बार पंडितजी काशी आ चुके थे किंतु एक परदेशी के लिये रात्रि के समय यहाँ की गलियों का पता पाना सहज नहीं।

जिस समय ये दोनों वहाँ पहुँचे अकस्मात कहीं से किसी स्त्री के रोने की आवाज आई। "सुनो! सुनो! तुम्हारी प्रियंवदा! हाँ वही रो रही है! बस पहचान ला उसकी आवाज! बोलो कैसे समय पर लाया? अगर आधे घंटे की भी देरी हो जाती तो अपनी प्यारी से जन्म भर के लिये हाथ धो बैठते।" इस तरह कहकर वह आदमी पंडितजी का हाथ थाँमे उन्हें एक मकान की सीढ़ियाँ चढ़ा ले गया। यद्यपि होनहार के बशीभूत होकर उन्हें चला जाना पड़ा किंतु जिसे उन्होंने देवता समझा था वह पामर राक्षस निकला, जिसे वह महात्मा समझ बैठे थे वह तुलसीकृत रामायण का कपट मुनि निकला। कपट मुनि ने राजा प्रतापभानु से बदला लेने के लिये उसे कुकर्म में प्रवृत्त कर ब्राह्मण को मांस खिला दिया था और इस व्यक्ति का प्रपंच भी पंडितजी से बैर लेकर उन्हें दीन दुनिया से बिदा करने के लिये था। नाव में उनके हाथ से घूँसा खाकर वह चाहे उस समय भीतर ही भीतर दाँत पीसता रह गया था किंतु आज उसने ब्याज कसर से पंडितजी