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"हाँ जनाब! बड़े बड़े पंडित! पोथाधारी!"

"राम राम! बड़ा अनर्थ हो गया! फटे कपड़े में पैबंद लग सकता है किंतु फटे आकाश में कौन लगा सके? हाय! हाय!!"

इस तरह की बातें करते करते, इस काम के लिये नीच ऊँच सोचकर सलाह करते करते ये दोनों वहाँ से चलाकर फिर त्रिवेणी-तट पर, संगम पर आ पहुँचे। आए और बहुत ही उदास होकर दुःखित होकर आए। भाई ने और प्रियंवदा ने जब उनसे बहुत आग्रह के साथ पूछा तब उन्होंने आँखों में से आँसू डालकर केवल इतना कहा कि --

"यह वही पुण्यभूमि और यह वही पुण्यसलिला है, यह वही तीर्थ, नहीं तीर्थों का राजा है जिसके विषय में (तुलसी- कृत रामायण में) भगवान् मर्यादापुरुषोत्तम रामचंद्रजी के प्रयाग पहुँचने पर कहा गया है --

चौपाई--"प्रात प्रातकृत करि रघुराई।
तीरथराज दीख प्रभु जाई॥
सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी।
माधव सरिस मीत हितकारी॥
चारि पदारथ भरा भँडारू।
पुण्य प्रदेश देश अति चारू॥
क्षेत्र अगम गढ़ गाढ़ सुहावा।
सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन पावा॥