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उनके लिये वह लैटिन वा ग्रीक है। हमारी दुर्दशा आप क्या पूछते हैं? वेद भगवान् के वाक्य हैं। हम लोग वेद को ही परमेश्वर मानते हैं किंतु वह वेद जर्मनी में छपे और उसे किसानों का गान बतलाने का विदेशियों को अवसर मिले और हम उसका एक भी अक्षर न जानकर उनकी हाँ में हाँ मिला दें! फिर तुलसीदासजी अकेले वाल्मीकिजी के ही भरोसे तो नहीं रहे। भगवान् व्यास, महर्षि वाल्मीकि वा और अन्यान्य लेखक महात्मा जो उनसे पहले हो गए हैं उन सबके अनुभव का मक्खन उनका ग्रंथ है।"

"हाँ ठीक!"

'हाँ ठीक ही नहीं! इससे भी बढ़कर यह कि आज- कल के लेखक जब अपने जरा से काम के लिये घमंड में चूर हैं, जरा सी पोथी बनाते ही जब लोकोपकार का डंका पीटते हैं तब उन्होंने लिखा है और ऐसे लोकोपकारी ग्रंथ के लिये लिखा है कि "मैंने केवल अपने मन का संतोष करने के लिये जो कुछ मन में आया कह डाला है। ग्रंथ निर्माण की मुझरें योग्यता नहीं।" बोलिए, इससे बढ़कर नम्रता क्या होगी? आत्म- विसर्जन क्या होगा? वह जमाना कविता का था। तुलसीदासजी यदि चाहते तो किसी राजा की खुशामद करके लाख दो लाख पा सकते थे किंतु उन्होंने रुपयों के बदले तुंबी ली और अपना सर्वस्व छोड़कर भगवान् की शरण ली। वाल्मीकिजी ने भीलों के कर्म छोड़कर यश पाया और इन्होंने धन दारा छोड़कर।