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जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धन भवन साधु परिवारा॥
सब के ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहिं बाँध बाटि डोरी॥
समदर्शी इच्छा कछु नाहीं।
हर्ष शांक भय नहिं मन माहीं॥
अस सज्जन मम उर वस कैसे।
लोभी हृदय बसै धन जैसे॥
तुम सारिखे संत प्रिय मोरे।
धरौं देह नहिं आन निहारे॥"

गाया जा रहा था। अवश्य मर्यादापुषोत्तम का यह उप- देश राक्षसराज विभीषण के लिये था किंतु यह प्रत्येक मनुष्य के लिये भक्ति-मार्ग का पथदर्शक है, हिये का हार बनाने योग्य है, मन की पट्टी पर प्रेम की मसि और भक्ति की लेखनी से लिख रखने योग्य है और स्वर्णाक्षरों में लिखकर ऐसी जगह लटका रखने योग्य है जहाँ सोते, बैठते, खाते, पीते हर दम दृष्टि पड़ती रहे। क्योंकि इन वाक्यों में से, इनके प्रत्येक शब्द में से अमृत टपक रहा है और यह वह अमृत नहीं है जिसके लिये देवता और असुर कट मरे थे। उस अमृत का एक बार पान करने से मनुष्य तृप्त हो जाता है, उसे दूसरी बार पीने की आवश्यकता नहीं रहती किंतु इससे कभी मनुष्य अघाता नहीं। वह अमृत घोर तप करने से, अनेक जन्मों की