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कथा होती हो और सो भी तबला सारंगी पर, हार्मोनियम
के साथ अनेक लयों को गा गाकर होती हो तो वह आनंद
वास्तव में अपूर्व है। अगवान विष्णु ने देवर्षि नारदजी से
कहा है और यथार्थ कहा है कि "मैं न ते कभी वैकुंठ में
रहता हूँ और न योगियों को हृदय में। मेरा निवास, मेरा
पता उसी जगह समझो अथवा मैं उसी स्थान पर मिलूँगा
जहाँ मेरे भक्त भेग यश गा रहे हैं।" बस यही हाल यहाँ
का था। गानेवाले कोई भड़ैली गायक नहीं थे। सब ही
जो इस काम में लगे हुए थे वे सचमुच देहाभिमान भूल हुए थे।
श्रोतागण भी टकटकी लगाए चित्त को, अंतःकरण को
रामकथा में लगाए सुन सुनकर मुग्ध हो रहे थे। प्रसंग भी
ऐसा वैसा नहीं, रक्षों के भंडार में से निकला हुआ, अपने
प्रकाश से भक्तों के हृदय मंदिर को प्रकाशित करनेवाला कोह-
नूर हीरा था। जिस समय ये लोग पहुँचे भक्तवत्सल भगवान्
रामचंद्रजी के शब्दों में --
"सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुशुंडि शंभु गिरिजाऊ॥
जो नर होइ चराचर द्रोही।
आवइ सभय शरण तकि मोही॥
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करौं सद्य तिहिं साधु समाना॥