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सुनकर उस जगह मेला लग गया। इतने आदमी इकट्ठे हो गए जितने सायंकाल को यमुना महारानी के आरती के समय भी इकट्ठे नहीं होते होंगे। एक दम चारों ओर से― "जजमान हमारी दच्छना? हम कितनी देरी से तिहारे लिये आस लगाए बैठे हैं।" का शोर गुल मच गया। कोई गा गा कर कहने लगा―"मोरी भोरी सी माय चौबेन कूँ लड़वा खवाय जैयो।" तो किसी ने धक्के मुक्के से भीड़ को चीर कर दंपत्ति का मार्ग रोकते हुए हाथ फैलाकर-हम व्रज- बासीन को हू कछू दिये जाओ।" की आवाज लगाई। किसी ने पंडित जी का हाथ पकड़ा तो किसी ने उनका पैर। कोई पंडिताइन की धोती पकड़ने लगा तो किसी ने उसके आगे लट्ठ ही इस तरह फैला दिया कि वह आगे न बढ़ने पावे। कोई पंडित जी की अंटी में से रुपए पैसे निकालने का उद्योग करने लगा तो किसी ने उनके कंधे का दुपट्टा ही खैंच लिया। गरज यह कि ये दोनों, इनका भाई, और उनके संगी साथी एक दम व्याकुल हो उठे। थोड़ी देर तक सब के सब अपनी सुध बुध भूल गए। किसी को कुछ भी न सूझा कि किस सरह इन भिखारियों की भीड़ से छुटकारा हो। इन्होंने अपने पास से निकाल कर ज्यों ज्यों दिया त्यों त्यों माँगने वाले इन्हें अधिक अधिक घरने लगे। पंडित जी के साथियों में से यदि औरों के साथ एक एक के लिये पचास पचास आदमी होंगे तो इस जोड़ी के इर्द गिर्द दो सौ से