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ढाँके। ढाँक कर ज्योंही इसने "दाऊ दयाल ब्रज के राजा और भंग पिये तो यहीं आजा।" की आवाज के बाद रंग लगा कर छूँछ हाथ में उठाई, उठा कर ज्योंही इसने―"लेना वे!!!" के गगनभेदी शब्द से अपनी कोठरी को गुँजा डाला त्यों ही बाहर ले आवाज आई―"ए चौबेजी! अजी चौबेजी! किवाड़ा खोलो।" आवाज सुनते ही चौबायिन लंबा घूँघट ताने लपकी हुई आई। आकर―"छोड़ छोड़! भंग! निपूते जजमान आय गए। जब देखो तब भंग! भंग के सिवाय मानो कछु काम ही नाँय है।" कहती हुई ज्यों ही इसके पास से भंग का लोटा छीनने लगी यह बोला―"भागवान भंग तो पी लेन दै। जज- मान आयो हैं तो मरने दै सारे को। कहा ऐसो जजमान है जो निहाल कर देगो! ऐसे ऐसे नित आमैं हैं और चले जामैं हैं।" उसने इसकी एक न सुनी। लोटा छीन कर एक ओर एकखा और हाथ पकड़ कर आगे कर लिया। यह मन ही मन बड़बड़ाता, अपनी कुलकामिनी को गाली देता, उसकी और देख देख कर लाल लाल आँखें निकालता मकान के बाहर पहुँचा। इसने अपने सिर पर लाद कर सारा सामान अंदर लिया। पंडित प्रियानाथ जी को उनके योग्य और बूढ़े भग- वान दास को उसके योग्य स्थान दिया।

"महाराज, आप तो हमारे अन्नदाता हैं। हमारे लिये तो आप ही राजा करण हैं।" कह कर उनकी खुशामद की और जब सब तरह उनकी सेवा सुश्रुषा कर ली तब इस बिचारे