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"लिहाफ से मुँह ढाँक लो" थोड़ी देर में पंडित जी ने पूछा― क्यों रे? क्या मेह बरस रहा है? जरा उठ कर देख तो कहीं कपड़े तो नहीं भीगते हैं?' उसने जवाब दिया-"हाँ वरसता तो है। अभी बिल्ली भीगी हुई आई थी।" फिर पंडित जी बोले―"बरसता है तो जाकर कपड़े उठा।" वह बोला― "तड़के आप ही सूख जाँयगे।" तब पंडित जी ने कड़क कर कहा-"सूरख कैसे जाँयगे। खराब हो जाँयगे।" उसने लिहाफ में से मुँह निकाले बिना ही धीरे ले उत्तर दे दिया- "नुकसान से डरते हो तो इतना काम तुम ही कर लो।" आज की हरकत से पंडित जी को उसकी सब पुरानी बातें याद आ गई। उन्होंने अपनी जेब में से निकाल कर एक दो, तीन, चार रुपये गिने। गिन कर उसकी जेब में डाले और तब यह कह कर-"यह खर्च ले। जब तेरी मौज हो अपने घर चले जाना। आज से ही तू मौकूफ! हमें ऐसा नौकर नहीं चाहिए। चला जा अपने घर और और जगह नौकरी टटोल।" वहाँ से चलने खगे। पंडित जी का सचमुच ही खरा खरा क्रोध देख कर उसकी निद्रा टूट गई। उसने लपक कर पहले पंडित जी के और जब उन्होंने झटका दिया तो पंडितापिन के पैर पकड़ लिए। हाथ जोड़ कर माथा टेक कर और चिरौरी करके क्षमा माँगी और आँखों से आसू बहा कर वह रोने लगा। पंडितायिन को उस पर दया आई और उसने भोला की शिफारिश करते हुए कहा―