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"हाय! बड़ा अनर्थं हो गया!" कह कर यह रोया भी कम नहीं। इसने इस युवती के इस तरह एकाएक गिर जाने का कारण जानने का भी बहुतेरा प्रयत्न किया परंतु न तो इसे कोई चिह्न ही ऐसा मिल सका जिससे इसे कुछ भेद मालूम हो सके और न घर की गैया ही ने गवाही दी कि माजरा क्या है। यदि रात के बदले दिन होता तो शायद यह पींजरे के तोते से भी पूछ सकता था किंतु यह भी इस समय घोर निद्रा में है।

अस्तु! घबड़ा जाने पर भी इसने अपना साहस न छोड़ा। यह उन्हीं लोगों में से एक था जिनका सिद्धांत है―

"विपदि धैर्य्यमथाभ्युदये क्षमा
सदसि।वाक्पटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ
प्रकृति सिद्धमिदं हि महात्मनाम्॥"

बस इसने चिराग के उजाले में एक बार उसके घाव धोकर पीला कपड़ा बाँधा और तब अपनी ओषधियों की पिटारी में से कस्तूरी निकाल कर इसके मुँह में डाली और साथ ही श्वासकुठार इसकी आँखों में आँज दिया। कोई आधे घंटे में जब उसे होश आया तब "हाय मरी रे! हाय मार डाला रे!" कह कर इसने आँखें खोलीं। "हे राम! हे दीन- बंधु!! हाय! इस विपत्ति के समय यह कहाँ हैं?" कह कर फिर आँखें बंद कर लीं। "मैं यहीं हूँ। मैं आगया हूँ! अब