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आँखें बैठी जाती हैं। आज एकादशी का व्रत है। छोटे बालको को छोड़ कर सब ही दिन भर में एक बार रोटी खाते हैं। यह इसके घर का नियम है। इस कारण किसी ने कलेऊ नहीं किया है। इस बात को जानने पर भी इसका ध्यान न मालूम किधर है।

खैर! अंत में इसका ध्यान छूटा। "ओहो! बड़ी अबेर हो गई! बाल बच्चे भूखों मर गए। बुलाओ सब को। जल्दी आओ॥" की एक आवाज इसने कड़क के साथ दी और पीपल के नीचे कुछ धूप और थोड़ी छाया में इसके ही जो बालक खेल रहे थे उन्होंने अपना खेल त्याग कर किसी ने "चाचाजी आओ" किसी ने "भाई जी आओ" और किसी ने "मामाजी आओ" की पुकार से आकाश गूँज डाला। हल जोतनेवाले अपनी अपनी जोड़ी लिए हुए आए और लड़के लड़की भैंसों को तलाइयों में छोड़ कर भाग आए। बुढ़िया ने उठ कर अपने अपने हिस्से की रोटियाँ और उन पर तरकारी सब को बाँट दी और जब सारे के सारे अपना अपना पेट भरने में लगे, जब बहुओं और पतोहुओं ने भी मुँह फेर कर खाना आरंभ कर दिया तब बुढ़िया ले चार रोटी कुछ तरकारी और एक कटोरे में थोड़ा सा दूध बूढ़े राम के आगे रख कर कहा―

लो तुम भी खा लो। भूख के मारे आँखें बैठी जाती हैं। न मालूम किस फिक्र में पड़ रहे हो? अपनी भी सुध नहीं।"