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हल चलाने वालों की इनसे बढ़कर दुर्दशा है। थकावट से, लू से और धूप की तेजी से सब के सब घबड़ा उठे हैं। कोई कहता है―"आज मरे।" और कोई कहता है―आज एक न एक जुरूर मरेगा।" किसी ने कहा―"आज वह डोकरा एकाध के प्राण लिये बिना नहीं छोड़ेगा"―तो कोई झट बोल उठा― "आज तो अभी तक कोई रोटी लेकर भी नहीं आया।"

जिस समय इन लोगों में इस तरह की बातें हो रही हैं उस समय पीपल के नीचे एक पिचहत्तर वर्ष का बूढ़ा टूटी सी चारपाई पर बैठा हुआ हुक्का गुड़गुड़ा रहा है। बुढ़ापे ने जोर देकर उसके मुँह से सब दाँत छीन लिए हैं, उसके सिर और दाढ़ी मोंछ के क्या―भौंहों तक के बाल सन से सफेद हो गए हैं। जवानी जब इस बूढ़े से नाराज होकर जाने लगी तो चलते चलते गुस्से में आकर एक लात इस जोर से मार गई कि जिससे बूढ़े की कमर झुक कर दुहरी हो गई। डाढ़ के दांतों के गिर जाने से इसके पोपले मुँह के गाल पिचक कर जैसे भीतर जा चिपके हैं वैसे ही आँखें भी हिये की आँखों से मुलाकात करने के लिये भीतर की ओर घुसी जा रही हैं। इस तरह शरीर की हर एक दशा से इसका बुढ़ापा झलकता है परंतु फिर भी "साठा सो पाठा।" यह आज कल के जवानों से किसी तरह कम नहीं है। खाने के लिये जब थाली सामने आती है तब अस्सी भर के तोल से डेढ़ सेर आटा चाहिए और काम करने के लिये यदि खड़ा हो जाय तो जवानों को