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उस दिन पूर्व में दिशाशूल और इन्हें उधर ही जाना। मृत्यु योग्य और चंद्रमा चौथा था। सुन कर पंडित प्रियानाथ मुस- कराए। "अच्छा खासा मुत्यु योग है। दोनों में से एक भी जीता नहीं लौटेगा।" इतना कहकर अपनी गृहिणी की ओर देखते हुए हँस कर इन्होंने पूछा―"पंडित जी कुछ पढ़े भी हो?"―उत्तर में घबड़ाई हुई जबान से "यों ही पेट भर लेता हूँ" कहते हुए उन्होंने अपनी पोथी बगल में दवाई और पेट में दर्द का बहाना करके वे चट नौ दो ग्यारह हुए। उनके चले जाने बाद प्रिया- नाथ जी ने अपना सिर ठोंका और "इन्हीं मूर्खों की बदौलत हिंदू धर्म नष्ट भ्रष्ट हुआ जा रहा है" कहते हुए पत्रा देखकर अपनी यात्रा का दिन स्थिर किया और घृतश्राद्धा भी स्वदेश आकर करना निश्चय किया। और किया सो हाल में निश्चय करके कोई साल भर बाद क्योंकि उनकी छुट्टी झमेले में पड़ जाने से उन्हें इस समय विचार त्यागना पड़ा था।


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