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गँवारो में बैठकर यह अवश्य बड़ी बड़ी डींगें हाँका करते थे किंतु आते ही प्रियानाथ महाशय को देख कर इन्हें लकवा मार गया। यदि इन्हें घर पर ही मालूम हो जाता कि एक विद्वान का सामना करना है तो शायद बुखार का बहाना कर के पड़े रहते परंतु जो आदमी इन्हें बुलाने गया था उसने इन्हें खूब मोदक और भरपूर दक्षिणा मिलने का झांसा दे दिया था और इस लिये अपनी घरवाली से वे कह आये थे कि-"आज हमारे लिये कुछ न बनाना? चूल्हा जलाने ही की क्या आवश्यकता है? हो सकेगा तो तेरे लिये लेते आवेंगे, नहीं तो सखी सूखी खाकर गुजर कर लेना।" केवल इतना ही क्यों? इन्हें आशा थी कि अच्छे बूरे के बढ़िया और गहरे घी के मोदक मिलेंगे। इसलिये चलती बार अपनी घरवाली को ताकीद कर आए थे कि "भंग बढ़िया बनाकर तैयार रखना।" क्योंकि वह मानते थे कि-"आज मोदकों से संग्राम है।"

आकर यह बैठे, और इन्होंने अँगुलियों पर अँगूठा डालकर कभी मीज, मेष, वृष, और कमी अश्विनी, भरणी, कृत्तिका पचासों बार गिन डाले। इन्होंने "शीघ्रबोध" के अटरम शटरम दो चार श्लोक भी बोले परंतु मुहूर्त बनाने का हियाव न हुआ। अंत में इन्होंने साहस बटोर कर कहा―

"नवमी शनिवार!"