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दूरवालों ने उन पासवालों की जगह ले ली। जल में अधिक देरी तक खड़े रहने से जब प्रियंवदा का गोरा रंग और भी सफेद पड़ गया तब पंडितजी के होठ थरथराने और कांतानाथ के दाँत बजने लगे हैं। बूढ़ा भगवानदास अवश्य ही अब तब कड़ा बनकर पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा हुआ था किंतु एकाएक उसका हाथ कमर पर पड़ा। पड़ते ही रुपयों की बसनी के बदले उसके हाथ में डोरी आई। डोरी आते ही वह एक दम चीख मार कर पानी में गिर पड़ा और बेहोश होकर जब डुबकियाँ लेने लगा तब किसी ने समझा घड़ियाल खैंच रहा है और कोई बोला मिरगी आ गई! किंतु उसकी चीख का असली भेद तब तक किसी ने न जाना जब तक उसने ही सचेत होकर अपनी जबान से न कहा कि―

"मेरी कमर से डेढ़ सौ रुपए की दस गिन्नियाँ कोई काट ले गया। हे भगवान अब मैं यात्रा कहाँ से करूँगा।"

उसे होश भी कोई दो चार मिनट में आया हो सो नहीं। सख्ते पर डाल कर खासे आधे घंटे तक कंबल उढ़ाए रखने के बाद। इतने अर्से में ले जानेवाला न मालूम कितनी दूर पहुँच गया होगा। खैर पंडित जी जब खर्च देने का वादा करके उसको ढाढ़स बँधा चुके तब विजया देवी की निद्रा में से जाग कर जंगी महाराज ने कहा―