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वाल्मीकिजी ने जो कुछ कहा वह प्रत्येक मनुष्य के हृदयपटल लिखने योग्य हैं। उन्होंने कहा—

दोहा। पूछेहु मोहि कि रहौं कहूँ, मैं पूछत सकुचाउँ।
जहँ न होहुँ तहँ देहु कहि, तुमहिं देखावहुँ ठाउँ।
चौपाई। सुनि मुनि वचन प्रेम रससाने।

सकुचि राम मन मँह मुसकाने॥
वालमीकि हँसि कहहिं बहोरी।
बानी मधुर अमिय रस बोरी॥
सुनहुँ राम अब कहहुँ निकेता।
जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥
जिनके श्रवण समुद्र समाना।
कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे।
तिलके हिथ तुम कहँ गृह रूरे॥
लोचन चातक जिन करि राखे।
रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी।
रूप बिंदु जल होहिं सुखारी॥
तिनके हृदय सदन सुखदायक।

बसहु बंधु सिय सह रघुनायक॥
दोहा। जल तुम्हार मानस विमल, हंसिनि जीहा जासु।
मुकताहल गुण गण चुनहि राम बसहु हिय तासु॥