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"अपने पिता की आज्ञा को माथे चढ़ाकर आप यदि पंडित न हों तो आप को गुरु मानने में हम बाध्य नहीं हैं। पंडों में से कोई अच्छा विद्वान तलाश करके गुरु उसी को मानेंगे। यदि तुम पढ़े लिखे हो तो तुम्हारे पैर पूजने में हमें कुछ संकोच नहीं। हम माथे के बल तैयार हैं।"

गुरु जी ठहरे निरक्षर भट्टाचार्य। उनके लिये काला अक्षर भैंस बराबर। इस लिये दोनों के परस्पर कहा सुनी हुई, सुर्खा सुर्खी हुई और तकरार भी हुई और अंत में अपनी दाल गलती न देखकर जंगी महाराज रमानाथ शास्त्री को गालियाँ सुनाते वहाँ से चले जाने के लिये भी तैयार हुए किंतु गौड़बोले ने प्रियानाथ जी के कान में उन्हें एक ओर लेजाकर चुपके ले कहा कि―

"आप करते क्या अनर्थ हो? प्रथम तो इन तीर्थगुरुओं में कोई पंडित मिलना ही कठिन है और यदि दैव संयोग से मिल भी गया तो इस में लाठी चलकर फौजदारी होगी। आज व्यतीपत का पर्व आपके हाथ न लगेगा और हम लोगों को गवाही देने के लिये खिंचे खिंचे फिरना पड़ेगा सो अलग।"

हाँ बेशक!" कह कर इन्होंने कांतानाथ की ओर देखा तो उसने भी यही राय दी और प्रियंवदा ने भी आँख के इशारे से पति को मथुरा की बात याद दिला दी। बस इसलिये इन्होंने जंगी गुरु को हाथ जोड़कर बिठलाते हुए कहा-]]