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पहले छोटे मोटे बाल बच्चे सब मिला कर पचास आदमियों का कुटुंब देखा था उसमें तीन विधवाओं के सिवाय कोई नहीं। इन तीनों ने अपनी वृत्ति चलाने के लिये तीन ही खड़के गोद लिए हैं किंतु तीनों लंठ हैं, तीनों अक्षर शत्रु हैं, तीनों की त्रिकाल संध्या के बदले तीनों बार विजया छानती है। गाँजा चरस, चंडू और कोकेन का तो हिसाब ही क्या? यजमानों के नामों की बहियाँ, उनके हस्ताक्षर बाँटने के लिये इनके आपस में अदा- लत चलती है। बहियाँ सब अदालत में पेश हैं। मुकद्दमा दिवानी तो है ही किंतु आपस में लाठी चल कर कितनों ही के सिर फूट जाने से फौजदारी भी हो गई है। तीनों में से इस कारण दो हवालात में हैं। एक जना उस लाठीवाजी के दिन यदि यहाँ होता तो अवश्य वह भी हवालात की हवा खाए बिना न रहता क्योंकि वह नामी लड़ाकू है। खैर वही आज पंडित प्रियानाथ के पास बैठा बैठा, बार बार हथेली में तंबाखू लेकर मीसता जाता है और खा खा कर उठने के आलस्य से दीवार को पिचक पिचक रंग कर लाली जमा रहा है।

इस पंडे का नाम था जंगी। बहियाँ असल मौजूद न होने से ज्यों ज्यों अपनी वृन्ति पर स्थिर रखने के लिये जंगी ने नकलें दिखा कर असल फिर दिखला देने का वादा करके पंडित जी का संतोष करना चाहा त्यों ही त्यों उनका बहस बढ़ा। नकल में पिता की आज्ञा पढ़ कर इनका विचार और भी पक्का हुआ, इसलिये इन्होंने बेधड़क होकर स्पष्ट कह दिया कि―

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