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के सब व्याकुल हैं। एक कदम आगे बढ़ने का जी नहीं चाहता। सबकी इच्छा होती है कि यदि कृपा करके गंगा महारानी यहाँ कहीं पास ही निकल आवें तो स्नान श्राद्धादि से निवृत होकर कुछ पेट की चिंता करें। पंडित, पंडितायिन और छोटे भैया की यदि वह दशा हो तो हो क्योंकि वे ब्राह्मण थे, कट्टर सनातनधर्मी थे, अंगरेजी के अच्छे विद्वान होने पर भी रेल में पानी नहीं पीते थे, स्टेशनों के नलों का पानी उनके काम नहीं आता था, खोमचों को पूरी तरकारी तो क्या बरन विलायती चीनी की मिठाई तक का स्पर्श करने से उन्हें घृणा थी। इन स्टेशनों पर अवश्य ही फल मिलने का अभाव नहीं था परंतु प्रथम तो आज स्नान संध्या का अवसर ही नहीं मिला और इनके बिना इनके लिये जल पान भी हराम फिर आज तीर्थ को उपवास है। भगवती भागीरथी में, त्रिवेणी में स्नान करके, श्राद्ध करने से पहले यदि खा लिया तो यात्रा करके भी झष ही मारी। ऐसी दशा केवल पंडित जी, उनकी गृहिणी, कांतानाथ और गौड़बोले की ही हो तो खैर। किंतु काछी होने पर भी बूढ़े भगवानदास ने और उसके डर से गोपीबल्लभ तथा उसकी माँ ने मुँह में एक दाना नहीं डाला, एक घूँट पानी नहीं पिया। और जब लोगों ने उनसे आग्रह किया तो उन्होंने कह दिया, साफ साफ कह दिया कि―"हम जाति के शुद्र हैं तो क्या हुआ? क्या भंगी चमारों से छूकर उनका छुआ हुआ खावें पियें?]]