पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१९६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १८३ )

एक, दो, तीन, चार करते करते कितने ही स्टेशन निकल गए, कितने ही घंटे गुजर गए परंतु भीड़ भाड़ में न तो पंडित जी को ही इससे पूछने का अवसर मिला कि मामला क्या था? और न लाज के मारे यही उनसे कहने पाई कि "निपूता फिर आ मरा" अस्तु यों चलते चलते जब रात के दस ग्यारह बजे एक एक करके इनके दर्जे के सब मुसाफिरों के उतर जाने से मैदान सूना हुआ तब इसने 'अथ' से लेकर "इति" तक सारा किस्सा, आज की सारी घटना कह सुनाई। साथ में यह भी कह दिया कि "विश्रांत घाट पर आवाजा फेंकने वाला यही था, उस समय हमारी मदद के लिये यही पुलिस को लिवा कर लाया, इसी ने सेकेंड क्लास के फादक में हो कर स्टेशन पर पहुँचाया और निपूता फिर आ मरा। इस तरह इसने पति से जो कुछ हुआ था वह सारा का सारा सत्य सत्य कह दिया। एक बात भी घटा बढ़ा कर नहीं कही। नमक मिर्च बिलकुल न लगाई किंतु न मालूम क्यों यह उस बात को छिपा गई, जिसे उस आदमी के मुख से सुनते ही यह एक बार खिलखिला कर हँसी और फिर रोई थी। प्रियंवदा जैसी पतिव्रता स्त्री यदि पति से कोई बात और सो भी पर पुरुष की कही हुई इस तरह कही हुई जिसे सुनकर यह हँस पड़ी छिपा जावे तो अवश्य उसके चरित्र पर संदेह होना चाहिए। जब इस बात को पंडित जी सुनेंगे तब उन्हें भी संदेह होगा अथवा वह प्रियंवदा की