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जब टिकिट लिए हुए हाँपते हाँपते घबड़ाते घबड़ाते पंडित जी के पास पहुँचे तो उन्होंने छाती से लगा कर दोनों को शाबसी दी, इनकी प्रशंसा करके इनका मन बढ़ाया और पंडितायिन ने पंखा झल कर इनको शांत किया।

ऐसे टिकट हाथ इनके अवश्य आएगा किंतु टिकट मिलते ही ट्रंक गायब। ट्रंक किसका था? प्रियंवदा का। उसी के कपड़े लत्ते उसमें रक्खे थे। कपड़े लत्ते होंगे कोई पाँच छ: जोड़ी। चार पाँच किताबें और शीशा, काजल, कंघी, रोरी, डोरी, सिंदूर आदि श्रृंगार और सौभाग्य की सामग्री। ले भागनेवाले पर सब से पहले नजर भोला कहार की ही पड़ी क्योंकि यह उसी के चार्ज में था और इसमें प्रियंवदा की प्यारी चीजें रक्खी हुई थीं इसलिये वह भी बार बार इसे सँभालती जाती और भोला से ताकीद करती जाती थी। उठाईगीर को इसे उठाकर ले भागते देखकर भोला चिल्लाया बहुत परंतु अपने आसन से उठकर एक इंच भी न टला। 'यह गया! वह गया!! ले गया।' की आवाज कान पर पड़ते ही कांतानाथ और गोपीवल्लभ खड़े हुए किंतु अभी तक इनकी पहली घबड़ाहट मिटी नहीं थी इस लिये इनके पैर लड़खड़ाने लगे। बूढ़े भगवानदास की नसों में जोश आते ही बासी कढ़ी में अवश्य उबाल आया किंतु "कहीं मर रहोगे! जाने दो ले गया तो!" कहकर बुढ़िया ने उसकी टाँग पकड़ ली। अब पंडित जी की पारी