सौ के सिवाय सब ही जैसे भगवान के दर्शन के लिये मंदिर के किवाड़ खुलने की राह देखते भक्त जन एकटक से एकाग्रचित्त होकर खड़े रहते हैं उसी तरह सब ही मुसाफिर खड़े हैं और खड़े खड़े खिड़की की ओर निहार निहार कर हडबड़ाते जाते हैं, अकुलाते जाते हैं और घबड़ाते जाते हैं।
बस थोड़ी देर में टिकट बटने की घंटी के साथ ही खिड़की खुली। जो लोग हट्टे कट्टे मुस्टंडे थे, जो धक्का नुक्की से भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ कर घंटा भर पहले ही से जा खड़े रहे थे वे अवश्य ही जीत में रहे। यदि अधिक भीड़ देख कर एक ही जगह दो चार खिड़कियाँ एक साथ खोल दी जातीं तो सब लोगों को टिकट मिल सकते थे किंतु आज टिकट ले लेना जान की बाजी लगाना था। बलवान दुर्बलों को, अब- लाओं को और बालकों को दबा कर, उनके हाथ पैर कुचल और उन्हें अपने शरीर के बल से पीस पीस कर आगे बढ़ते थे और जहाँ तक बन सकता था टिकट पाते भी थे। किंतु आज अंधे अपाहिजों की, लूले लँगड़ोँ की, स्त्री बालकों की बड़ी मुश्किल थी, यद्यपि भीड़ को हटाने में, गुलगपाड़ा बंद करने में और डाँटने डपटने में पुलिस ने कभी नहीं की। जहाँ ललकारने, फटकारने से काम चल सका वहाँ ललकार फटकार कर और जहाँ डंडा मारने की आवश्यता हुई वहाँ डंडा मारकर उसने रोका भी, किंतु आज टिकट घर की ओर नरमुंडों का समुद्र उलट रहा है। भीड़ में से एक दूसरे की