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"हाँ समझ लूँगा और तुम्हें आँच भी न आने दूँगा मगर मुझ से सच सच तो कहो कि मामला क्या है?"

"सरकार, मैं हूँ तो गरीब, पर मेरी झोपड़ी पर जो कोई आता है उसकी जहाँ तक बनता है दाल दलिए से खातिर करता हूँ। यह मेरे यहाँ कई बार आया! मुझे उसकी बातें कुछ अच्छी मालूम हुईं। योग की चर्चा बहुत किया करता था। मैं पढ़ा लिखा तो बिलकुल नहीं पर सुनते सुनते मुझे भी कुछ ऐसी चर्चा अच्छी लगने लगी। मैंने उसमें गुरण देखे इस वास्ते उसकी मैंने खातिर भी बढ़ाई। खातिर भी क्या? वह लेने के नाम पर एक पाई तक नहीं छूता था। बस इसलिये मेरा भरोसा उस पर बढ़ गया। नतीजा यह हुआ कि एक हजार रुपए पर तो मैं रो बैठा। रपट इसलिये नहीं की कि नाहक खिचे खिचे फिरना पड़ेगा।"

"हैं! अच्छा तो एक हज़ार रुपए का चिरका तो तुम्हें दे गया? मगर उस बच्चे का मामला किस तरह हुआ?"

"सरकार! मुझे बच्चे का हाल बिलकुल मालूम नहीं। मालूम होता तो मैं हुजूर से साफ साफ कह देता। साँच को आँच बिलकुल नहीं।"

"बेशक, मगर बड़ा गजब हो गया! अब फकीरों का भी ऐतबार गया। क्या ऐसे बदमाशों ने नेक और खुदापरस्तों को भी बर्बाद कर डाला! मैंने सुना है कि सिर्फ पाँच रुपए के जेवर के लालच में दुलारेलाल के एकलौते बेटे को मार गया।"