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मियों को ले आया। चारों में मुख्य नंबरदार का लड़का था। बूढ़े से दो नजर होते ही वह झेंपा। उन्होंने उससे बहुतेरा कहा कि-"डरो मत! साफ साफ कहो। इस बूढ़े से बिलकुल मत डरो। यह तुम्हारा कुछ नहीं कर सकता। घबड़ाओ मत मैं भी तो आज देखूँ कि यह कहाँ तक सच्चा है?" बूढ़े ने भी बहुतेरा कहा कि–"हाँ! हाँ!! घबड़ाते क्यों हो? जो कुछ हुआ हो धर्म से कहो। सच कहने में संकोच ही क्या?" परंतु बाबूलाल झेंपा सो झेंपा ही। उसकी जबान बंद। तब तहसीलदार ने उसके तीन साथियों से पूछा―"यह डर गया है तो तुम कहो रे किस तरह हुआ था। बेशक गंगा माथे लेकर सच सच ही कहना"। "हाँ! सरकार जब हुजूर गंगा जी की सौगंद दिलाते हैं तो सच सच ही कहेंगे। चाहे हमारा सिर ही क्यों न उड़ा दिया जाय सच सच ही कहेंगे। बाबा ने बेशक अर्जी फड़वाई है। अर्जी लिखवानेवाले यह नहीं। यह हमेशा झगड़े तोड़ा करते हैं। हमने कभी इतनी उमर में इनको बखेड़ा बढ़ाते नहीं देखा। आपकी गाली खाकर जब खेमला भागा तो बाबूलाल ने पास बुला कर उसे थथोपा। अपने हाथ से अर्जी लिख कर उससे उस पर अँगूठे का निशान करवाया। उसने भी नाहीं तो बहुत की थी। उस बिचारे का भी कुछ कसूर नहीं है परंतु इसके दबाव से उसने अँगूठा चिपका दिया। हमने इनसे कहा कि इस पर तहसीलदार साहब नाराज होंगे तब? यह बोले―बाबा का नाम ले देना।