पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१६१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १४८ )

आचुका था। बस इसलिये उनकी सूरत देखते ही इसके मन को ढाढ़स हुआ। इसने मन में सोचा कि 'कुछ भी हो। अन्याय न होगा!" खैर! न्याय अन्याय की बात तो आगे देखी जायेगी किंतु आज मुरब्बतअली साहब की आँखों में मुरब्बत का लेश नहीं दिखलाई देता। आज क्रोध के मारे उनके नेत्र लाल होकर मानो उनमें से खून टपका पड़ता है। आँखों की सुर्खी दौड़ दौड़ कर गालों पर फैलती जाती है, भौहें चढ़ कर खोपड़ी से बातें करने के प्रयत्न में हैं, गुस्से के मारे उनके होंठ फड़फड़ाने लगे हैं और आज उनके शरीर में क्रोध ने अपना मजबूत डेरा डंडा आ जमाया है। बूढ़े को देखते ही उनका क्रोध और भी भड़क उठा। इन्होंने इस भूत के आवेश में आकर पूर्व परिचय, अपने पद के गौरव और बूढ़े की सेवा को भुलाते हुए कड़क कर जामे से बाहर होते हुए कहा―

"क्यों वे पाजी? तेरी इतनी मकदूर?"

"हैं सरकार मैंने क्या किया?"

"बस ख़बरदार एक लफ्ज़ भी मुँह में से निकाला तो? तूने नहीं किया तो क्या कोई भूत कर गाया?"

"पर यह तो बतलाइए! किसी ने क्या किया?"

"ओ हो! कैसा भोला बनता है? भुस में आग डाल जमालो दूर खड़ी। बोल तैने नहीं किया तो कौन कर गया?"

"पर किया क्या?"

"अच्छा सुन! तैंने उस खेमला चमार को बहका कर