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देश ग्रहण करने के बदले झूठी दुनिया के झूठे और बनावटी तमाशे देखने के लिये इस नगर के स्त्री पुरुष और बालक दौड़े जा रहे हैं। जाने में उनका दोष नहीं। मनुष्य जाति बनावट पसंद है। यदि बनावट पसंद न होती, यदि प्रकृति के अलोकिक सौंदर्य देखने के लिये भगवान ने उसे आँखें दी होतीं, यदि सितार की "टुनुन टुनुन" और तबले की “धप धप" सुनने के बदले वह ईश्वर की इस अनंत सृष्टि में ऐसी जगह बैठ कर अपने अपने घोंसले में जाकर बसेरा लेनेवाली चिड़ियों का चक चक सुनने की इच्छा करती तो शायद संसार के अनंत आडंबर का शोड़- शांश भी न रहता। फिर उसे किसी की खुशामद न करनी पड़ती, किसी की झिड़कियां न खानी पड़ती और न काम क्रोध लोभ और मोह जैसे प्रवल शत्रु, दुर्दमानीय रिपु जसका बाल बांका करले पाते।

अस्तु मेले तमाशे ने इस जनशून्य पर्वतखंड को आज और भी जनशून्य कर दिया है। आज यहां दो जनों के सिवाय कहीं कोई यादमी दिखलाई नहीं देता। चाहे कोई दीख पड़े परंतु इन दोनों के अंत-करण में न मालूम कुछ भय है अथवा शंका है क्योंकि ये दोनों इन कुर्सियों को छोड़कर इस एकांत स्थान में अधिका एकांतता पाने के लिये अलग ही एक सूनी चट्टान पर जा बैठे हैं। और शंका कोई हो तो हो क्यों कि ये दोनों चोर नहीं डकैत नहीं और खूनी नहीं जो किसी से डर कर एकांत ग्रहण करें क्योंकि जब "मुख ही अंत:-